दर्द की बस्ती जहाँ बसने लगी
उस शहर की जि़ंदगी हंसने लगी
हाथ तो अपने बुलंदी से परे,
पर ज़मीं ही पाँवकी धंसने
लगी सांप में जब से जगी संवेदना,
आस्तीनें ही हमें डसने लगी
कौन देगा ऋ ण, ग्रहण के नाम पर,
चाँदनी जब चाँद को ग्रसने लगी
एक शव अर्थी से ही चिल्ला पड़ा,
खोल दो ये रस्सियाँ, कसने लगी
जि़ंदगी तो है खफा मुझसे 'महेश,
मौत के भी कम में टसने लगी
-महेश सोनी भोपाल
उस शहर की जि़ंदगी हंसने लगी
हाथ तो अपने बुलंदी से परे,
पर ज़मीं ही पाँवकी धंसने
लगी सांप में जब से जगी संवेदना,
आस्तीनें ही हमें डसने लगी
कौन देगा ऋ ण, ग्रहण के नाम पर,
चाँदनी जब चाँद को ग्रसने लगी
एक शव अर्थी से ही चिल्ला पड़ा,
खोल दो ये रस्सियाँ, कसने लगी
जि़ंदगी तो है खफा मुझसे 'महेश,
मौत के भी कम में टसने लगी
-महेश सोनी भोपाल