शनिवार, 9 अगस्त 2014

बुन्देलखंडी बोलने से शर्म करने वाले रंगमंच पर सफल नहीं

बुन्देलखंडी बोलने से शर्म करने वाले रंगमंच पर सफल नहीं: मुकेश तिवारी

हिन्दी फिल्मों में बुंदेली के संवादों से धाक जमाने वाले अभिनेता मुकेश तिवारी ने बताया अपनी लोक भाषा का महत्व

महेश सोनी
भोपाल। हिन्दी फिल्मों में लोक भाषा का प्रयोग नहीं होगा तो फिल्म पूरी नहीं होगी। क्योंकि किसी भी किरदार को असली दिखाने के लिए भाषा का अहम योदान होता है। जहां तक मेरे बुंदेली के प्रयोग करने की है तो मैं कोई बनावटी प्रयोग नहीं करता हूं, बल्कि बुंदेली भाषा, संस्कृति और साहित्य यही हमारी पहचान है और जो अपनी भाषा नहीं बोल पाएगा वह रंगमंच पर भी अपनी प्रतिभा नहीं निखार पाएगा। यह बात विगत दिनों नाट्य विद्यालय के छात्र-छात्राओं से रूबरू होते हुए हिन्दी फिल्मों के जानेमाने अभिनेता मुकेश तिवारी ने कही। उन्होंने कहा कि कला और संस्कृति में निखार तभी आता है जब हम अपनी मातृभाष और स्थानीय बोली में अभिनय की सशक्त प्रस्तुति करेंगे। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कलाकार होता है, जरूरत है कला को प्रदर्शित करने की। थियेटर के माध्यम से ऐसे लोग अपनी कला को निखारकर रंगमंच संस्कृति को जिंदा रख सकते हैं। सपने पूरे करने के लिए स्ट्रगल से नहीं घबराना चाहिए। गौरतबल है कि मुकेश तिवारी ने चायना गेट, अपहरण, गंगाजल और गोलमाल आदि हिन्दी फिल्मों में यादगार अभिनय किया है और बुंदेली की अपनी अलग पहचान के कारण उन्होंने मुंबइया फिल्मी नगरी में भी बुन्देलखण्ड की अच्छी धाक जमाई है। 
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भाषा हमें दिलाती है पहचान
हमारी स्थानीय भाषा ही हमें पहचान दिलाती है। यदि हम इसको सम्मान नहीं देंगे तो कौन देगा। बुंदेलखंडी बोली तो हमारी संस्कृति है और हमारी पहचान है। तीन दिवसीय नाट्य महोत्सव के शुभारंभ अवसर पर पहुंचे फिल्म तिवारी अल्प समय के लिए सर्किट हाउस में ठहरे थे। उन्होंने कहा कि जिन युवाओं को बुन्देलखण्डी बोलने में शर्म आती है वह थियेटर और सिनेमा का रुख न करें। क्योंकि आप अपनी संस्कृति को भूलकर थियेटर और सिनेमा को क्या देंगे। इस तरह के आयोजन स्थानीय कलाकारों के लिए अच्छा मंच प्रदान करते हैं। थियेटर अपने आप से साक्षात्कार करने का मंच है। यह नया दृष्टिकोण पैदा करने में आपकी मदद करता है। स्ट्रगल से डरने वाले युवाओं के लिए उन्होंने कहा कि भारत में आज भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा दो समय का भोजन नहीं कर पाता है। ऐसे में बिना स्ट्रगल के बड़ी सफलता प्राप्त करने की बात युवाओं के लिए सपना है, इसलिए मेहनत से न घबराएं। उन्होंने कहा कि बुंदेली साहित्य और भाषा में अपनापन है वह अन्य स्थानीय भाषाओं से अलग है। इसे जीवित रखना है तो हमें इसे मन से अपनाना होगा तभी हम रंगमंच पर देश-विदेश में अपनी एक अलग पहचान बना पाएंगे।
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मत्युभोज: एक अनछुआ पहलू

लेखक- महेश सोनी
    मनुष्य अपने समाज में रहते हुए उन सारे बंधनों का निर्वहन करता है जिन्हें सामाजिक व्यवहार या फिर रीतिरिवाज कहा जाता है। हम आज जब वर्तमान समय में उन्हें देखते हैं तो कई रीतिरिवाज केवल मात्र दिखावा या रूढिय़ां ही प्रतीत होती हैं। परंतु जागरूक सामाजिकता से सरोकार रखने वाले लोगों ने इन बेमतलब और फजूल की बातों को विस्मृत करके समाज को नई दिशा प्रदान करने का बीड़ा उठाया है।
    हर समाज का अपना संगठन, अपना ढांचा और अपने खास व्यावहारिक क्रियाकलाप होते हैं। हर समाज अपने आप में पूर्ण सम्पन्न, सजग तथा जागरूक होना चाहता है। इसी के लिए समय-समय पर सामाजिक संगठन अपनी बैठकें, विचारगोष्ठियां आयोजित करता है, सम्मेलन बुलाता है। जिसमें अपने बातों को रखता है। किसी भी सामाजिक त्रुटि को दूर करने के लिए सभी एक साथ कृतसंकल्प होते हैं। परंतु उन्हीं दिशा-निर्देशों की अवहेलना उसी समाज के लोग भी करते हैं। क्योंकि समाज में हर वर्ग के यानी अमीर, गरीब, मध्यमवर्गीय, पिछड़े लोग रहते हैं, उनमें से कुछ लोग किसी जनरीति को जनसामान्य में अपनी धाक जमाने या अपने आत्मसम्मान के लिए मजबूरी में करते हैं। या किसी से मजबूरीवश करवाया जाता है। मत्युभोज के दौरान भी यही स्थितियां बनती हैं।
    आजा स्वर्णकार समाज में भी यही जनरीति एक कुरीती के रूप में सामने आ रही है, जिसे समाज के लोगों को मिलकर खत्म करना होगा। क्योंकि कई बार यह सब न चाहते हुए भी किया जाना लाजमी समझा जाता है। जबकि परिजन के स्वर्गवास होने के बाद तो उस परिवार पर और भी भारी विपत्ती आ जाती है। क्योंकि कभी कभी तो परिवार का मुखिया जिसके सिर पर पूरे परिवार की जिम्मेदार होती है, वही चला जाता है। तो फिर उस परिवार को मदद करने की बजाय मृत्युभोज जैसे अनचाहे उत्सव को करवाने के लिए क्यों बाध्य होना पड़ता है। जागरूक लोगों को समाज हित में इस ओर ध्यान देना ही चाहिए। इसके लिए कुछ रास्ते भी अपनाये जा सकते हैं। मसलन समाज के संगठन द्वारा एक स्थान पर एकत्रित होकर उस परिवार को सांत्वना देकर इसक काम को अंजाम दिया जा सकता है। ताकि फिजूलखर्ची भी रुके और परिवार पर अन्यथा बोझ भी न आए।
    मालवा क्षेत्र में पिछले डेढ़ दशक से तेरहवीं अर्थात मृत्युभोज की प्रथा ने एक नया रूप ले लिया है। यहां पर मृत्युभोज देने के बाद लौटने वाले सभी मेहमानों को महंगे परितोषिक, उपहार भी देने की प्रथा खूब प्रचनल में है। जबकि साधन संपन्न लोगों के लिए यह गौरव की बात हो सकती है, लेकिन गरीब और पिछड़े हुए समाज के लोगों के लिए यह अपनी इज्जत और मानसम्मान की बात बन जाती है। लेकिन क्या इससे उस स्वर्गवासी आत्मा को कुछ मिलने वाला है क्या? नहीं, बल्कि हम तो समाज के हित और अहित को सोचे और उस परिवार पर बीतने वाली दुखत स्थिति से उसे उबारने के लिए आगे आएं। ताकि न मृत्युभोज देने की आवश्यकता न हो और न ही महंगे उपहार स्मृति के रूप में दिए जाएं। इसकी बजाय साधन संपन्न लोग अपने स्वर्गवासी परजिनों की स्मृति में उतना ही आर्थिक सहयोग समाज के द्वारा किसी जरूरतमंद गरीब, पिछड़े परिवार को उपलब्ध करा दिया जाना चाहिए। तभी स्वर्गवासी के लिए सच्ची श्रृद्धांजलि होगी।
    जहां एक ओर हम शिक्षित और जागरूक समाज की कल्पना करते हैं, वहीं दूसरी और मृत्युभोज जैसी अनचाही परंपराओं का बेरोकटोक निर्वहन करने से नहीं चूकते हैं। ऐसे में समाज कहां उन्नति के शिखर पर पहुंचेगा। इसके लिए समाज के सम्मानित लोगों को आगे आकर पहल करनी ही होगी। चाहे हमारे सामाजिक सम्मेलन हो, समाज की गोष्ठियां हों, या फिर सामूहिक विवाह आदि, इस दौरान इस मुद्दे पर भी चर्चा करें और लोगों को आगाह करें कि मृत्युभोज के नाम पर फिजूलखर्ची बंद कर केवल परंपराओं के निर्वाह के लिए विधिविधान से कर्मकाण्ड भर करवाए जाएं। उसे भी अतिसूक्ष्म रूप से करें ताकि स्वर्गवासी आत्मा की शांति के लिए किया गया यह काम दूसरों के लिए भी प्रेरणा देने वाला बने।
-महेश सोनी