सोमवार, 27 मार्च 2017

जंगल है तो नदी, जल है तो समुदाय

विश्व जल दिवस: 22 मार्च

जंगल है तो नदी, जल है तो समुदाय

-महेश सोनी



प्रकृति का नि:शुल्क उपहार है जल। पारिस्थितिकी तंत्र की अवधारणा को समझें तो जंगलों की उपलब्धता पर ही नदियों का अस्तित्व है और नदियों का अस्तित्व है तो ही धरती पर जल है। यहां तक तो ठीक है लेकिन समुदाय अर्थात मुनष्य के जीवित रहने की ल्पना करें तो जल के बिना संभव नहीं है। आज पर्यावरणीय आवश्यकताओं को देखें तो हमारा पर्यावरण विखंडित हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण ऋतुओं के क्रम में भी काफी बदलाव आ गया है। बेमौसम बारिश, सर्दी का सिमटना, गर्मी का लंबा अंतराल ये सब हमारे सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पिछले दो दशक को ही ले लें, तो देखने में आया है कि जहां नदियों ने अपना स्वरूप बदला है वहीं जल की उपलब्धता में कमी आई है। इसकी खास वजह जंगलों का बेतहाशा शोषण, अवैध कटाई और शहरीकरण है। आज शहरों में कांक्रीटीकरण के फलस्वरूप बरसात का पानी बह निकलता है। जबकि कच्ची मिट्टी उसे सोख लेती है। यही वजह है कि जमीन की जलधारण क्षमता में कमी आई है। इसका परिणाम हम दो दशकों के अंतराल में ही देख चुके हैं कि जमीन का जल स्तर काफी नीचे चला गया है। अब हालांकि कुछ सालों से इसे वापस लाने के लिए लोग जागरूक हुए हैं और नदियों, कछारों, तालाबों, कुंओं, बावडिय़ों की सफसफाई के प्रति सकारात्मक व्यवहार दिखा रहे हैं। प्रकृति लंबे अंतराल में करबट बदलती है, जो एक पीढ़ी तो उसे समझ ही नहीं पाती है, लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटें और पुराने धरोहरों को देखें तो हम समझ सकते हैं कि पुराने समय में जल की उपलब्धता कितनी अधिक थी। नदियों में बारहमासी जल बहता था, कुंओं में सालभर पानी खत्म नहीं होता था, तालाबों में हर मौसम में नौका विहार किया जाता था, और बावडिय़ों में गरमी के मौसम में शीतल जल की उपलब्धता उस तपिश को कम करती थी, जब सूर्य प्रचंड तेज बरसाता था। 

मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में रोटी कपड़ा और मकान से पहले अब हमें जल को जोडऩा चाहिए। क्योंकि हम इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि आने वाले दस सालों में देश की सत्तर फीसदी आबादी अब शहरों में निवास करेगी। गांवों का नगरीकरण बड़ी तेजी से हो रहा है, और नगर अब शहर बनते जा रहे हैं। गांवों में लोग वहां भी कांक्रीटीकरण करने से परहेज नहीं कर रहे हैं। ऐसे में इतनी बड़ी आबादी को जल मुहैया कराना सबसे बड़ी चुनौती होगी। भारत सरकार, नीति आयोग के 'सतत विकास लक्ष्य-2030Ó के 13 लक्ष्य इसी चिंता में डूबे हुए हैं जबकि लक्ष्य क्रमांत तीन में सभी के लिए पेयजल तथा स्वच्छता, लक्ष्य क्रमांक 13 में जलवायु परिवर्तन का अध्ययन, लक्ष्य क्रमांक 14 में जल स्त्रोंतों का रखरखाव, भूमि कटाव को रोकना, नदियों का संरक्षण, जैव विविधता की हानि को रोकना प्रमुख रूप से रखा गया है। सिंहस्थ-2016 के वैचारिक महाकुंभ के विचार अमृत में भी इस चिंता को प्रमुख रूप से सामने लाया गया है कि हमें जल संरक्षण तथा संवर्धन की चिंता करनी है। अब वह समय आ गया है जब हमें वैचारिक चिंता की बजाय व्यावहारिक चिंता करनी होगी। प्रकृत्ति प्रदत्त अमूल्य उपहारों को नि:शुल्क मानने की बजाय कीमती मानना होगा। जल स्त्रोतों को हमें अपने हाथों से स्वच्छ, साफ रखना होग, विकृत होने पर अपने हाथों से साफ-सफाई करने का बीड़ा उठाना होगा। अन्यथा दस साल बाद हमें पानी के लिए लंबी कतारें लगानी होगी और जब हमारी बारी आएगी, तब तक जल का बरतन खाली हो चुका होगा। 

जल बचाने के लिए जंगलों को सहेजना आवश्यक है। इसके लिए नदियों को संरक्षित करना भी बेहद जरूरी है, तभी हमारा समुदाय या मनुष्य समाज सुरक्षित होगा। आज नर्मदा नदी को सहेजने, उसे प्रदूषण से मुक्त करने के लिए 'नमामि देवी नर्मदे-सेवा यात्राÓ चलाई जा रही है। यह यात्रा किसी धर्म, पंथ, संप्रदाय, या वर्ग विशेष से प्रेरित नहीं है, बल्कि यह तो मानव मात्र के कल्याण के लिए है। नर्मदा या अन्य तमाम नदियां आस्था और विश्वास का प्रतीक इसलिए भी है क्योंकि जल हम सब की आवश्यकता है। इसमें कोई धर्म, पंथ या संप्रदाय आड़े नहीं आता। यही वजह है कि विगत 11 दिसंबर 2016 से नर्मदा उद्गम स्थल अकरकंटक से यह यात्रा शुरू हुई और प्रदेश के नर्मदा तटों के 14 जिलों के जन समुदाय को साथ में लेकर 11 जून 2017 को समाप्त होगी। यह यात्रा केवल यात्रा नहीं है, बल्कि यह लोगों को नदियों, जल संरक्षण और जंगलों को सहेजने के लिए एक जनजागरुका यात्रा है। इसमें सभी धर्म, पंथ और समुदायों ने बढ़चढ़ कर अपनी हिस्सेदारी की है। इसी तरह देश की अन्य नदियों के लिए भी संरक्षण अभियान चलाया जा सकता है, ताकि गांवों की 70 फीसदी आबादी जब शहरों में तब्दील हो रही है तो उसे स्वच्छ जल मिल सकेगा। 

वर्तमान में जल, जंगल, नदी बचाने, इन्हें संरक्षित करने के लिए सरकारी स्तर पर अनेक योजनाएं चलाई जा रही हंै, अनेक प्रयास हो रहे हैं। लेकिन क्या ये प्रयास पर्याप्त हैं? प्रयास पर्याप्त भले ही न हों, लेकिन जो सरकार की चिंता है, उसको हमें अपनी चिंता बनानी चाहिए। क्योंकि राजा प्रजा को परेशानी से मुक्त करने की योजना बना सकता है, संसाधन मुहैया करा सकता है, लेकिन प्रजा को या जनता को संसाधनों का सही उपयोग करना जरूरी है, अन्यथा संसाधन भी समाप्त हो जाएंगे और समस्या भी बनी रहेगी। आज हम पानी खरीद कर पीने लगे हैं, बीस साल पहले कोई कहता था, कि पानी बेचो तो यह मजाक लगता था, लेकिन यह आज की जरूरत बन गई है। हम इसके आदी होते जा रहे हैं, लेकिन जहां से जल का उद्गम है, उन जंगलों को नदियों को बचाने उन्हें संरिक्षत करने की ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है। हालांकि जानकारों का कहना है कि गांवों में गा्रमीणों में इसकी ललक आज भी है और वहां प्रकृति प्रदत्त उपहारों की पूजा भी की जाती है, लेकिन शहरी आबादी का ध्यान इस ओर बिलकुल भी नहीं जा रहा है, यही वजह है कि शहरीकरण के चलते पेय जल की उपलब्धता में कमी आई है। अब शहरी आबादी को अपना ध्यान इस ओर ले जाना है, तभी हमारा विश्व जल दिवस मनाना सार्थक होगा, नहीं तो आने वाले दिनों में बहुत बड़ी मुश्किल हमारे सामने होगी।

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