गुरुवार, 15 जनवरी 2009

चुप रहें भी तो क्यों

झूठ की भीड़ में चुप रहें भी तो क्यों।
तंज़ दुनिया के आखऱि सहें भी तो क्यों।
मिल रही है, मुरव्वत अगर गाँव में,
कातिलों के शहर में रहें भी तो क्यों।
दर्द के पल गुजऱ जायें हंस के अगर,
आंसुओं के समंदर बहें भी तो क्यों।
जिस को सुनना हमारे लिए है बुरा,
बात इसी किसी से कहें भी तो क्यों।
वक्त के साथ चलाना बहुत लाजिमी,
उंगलियाँ थाम पीछे रहें भी तो क्यों।
-महेश सोनी

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